We have all been criticising about what is not being done by the government. However, we rarely give our own solutions to any problem that we see. May be the suggestion is ridiculous - but still if we look things in a positive way may be we can suggest solutions which some one can like and decide to implement. I know this is very wishful thinking but this is surely better than just criticising.

Monday, November 04, 2024

एक वो भी दीपावली थी….

 दशहरा जाते ही दीपावली के त्यौहार की उमंग मन में किल्लोल लेने लगती थी। आज दिपावली के इस माहौल में हमें अपना बचपन अनायास ही याद आने लगता है। परिवार के छोटे बड़े सदस्य घर की सफाई मे लग जाते थे। उन दिनों कम ही घरो में काम करने वाले सहायक होते थे। किसी को भी अपने घर में सफाई, रंग-रोगन करने में कोई झिझक नहीं होती थी। कभी कभी तो पड़ोसी को भी अगर किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती थी तो हम तुरंत आगे बढ़कर उनका काम कर देते थे। गुलजार साहब की लिखी यह कविता याद आती है –

हफ्तों पहले से साफ़-सफाई में जुट जाते हैं
चूने के कनिस्तर में थोड़ी नील मिलाते हैं
अलमारी खिसका खोयी चीज़ वापस पाते हैं
दोछत्ती का कबाड़ बेच कुछ पैसे कमाते हैं
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ....

परिवार की वरिष्ठ महिलाए दिनों पहले से मिठाई और सुस्वाद पकवान बनाने में व्यस्त हो जाती थी। घर पर बनी इन मिठाईयों का स्वाद ही कुछ अलग होता था। मन तो होता था कि ये मिठाई तुरंत खाने को मिल जाएं पर हमें भी पता था कि इसका स्वाद तो लक्ष्मी पूजा के बाद ही चखने को मिलेगा। दीपावली के समय घर पर मिलने-जुलने वालो का भी आवागमन बढ़ जाता था। आज हम गिफ्ट्स खूब वितरित करते हैं, उन दिनों भी ये घर की बनाई मिठाई बांटी जाती थी। आज के नौजवान को यह जान कर आश्चर्य होगा की कुछ ही किस्म कि मिठाई होती थी तब और वो दिनोंदिन हम सब मजे से खाते थे। आज तो हर मिठाई विक्रेता अपनी विशेष, तरह तरह की मिठाई का प्रचार हर मीडिया से करता नजर आता है। लोगो की इन दुकानो में भीड़ देख कर यह जानना कठीन नहीं है कि अब बहुत कम घरो में मिठाई बनती हैं।

नए कपड़े भी दीपावली के समय ही सब को मिलते थे। और यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था इस त्यौहार के बेसब्री से इंतजार का, सभी के लिए। उन दिनो रेडीमेड का चलन नहीं था और न ही चलन था ऑनलाइन खरीददारी का। घर में सभी के लिए एक से डिजाइन के कपड़े के थान आ जाते थे और फिर इन्हें सिलवा लिए जाते थे। आज की तरह किस्म किस्म के, प्रत्येक अवसर के लिए विशेष कपड़े नहीं होते थे। उस समय तो केवल तीन ही तरह के कपड़े पर विचार होता था – घर के, स्कूल के व विशेष अवसर के लिए। संयुक्त परिवार होने के कारण एक दूसरे के कपड़े भी खूब पहने जाते थे।

सभी आवास व व्यवसायिक प्रतिष्ठान के बाहर केले के पेड़ व दीपक लगाये जाते थे। इन दियों में तेल डालने के लिए तो आपस में स्पर्धा होती थी। मुझे रांची की एक विशेष बात बहुत याद आती हैं। उन दिनों कोई आठ-दस ही बिजली के सामान बेचने वाली दुकाने थी। दीपावली पर वो सब अपनी दुकान के सामने की जगह को खूब सजाते थे और एक प्रतियोगितात्मक भाव के साथ अच्छे से अच्छा दिखाने का प्रयास करते थे। और फिर छोटी व बड़ी दीपावली की रात हजारो की संख्या में लोग यह नजारा देखने, अगल-बगल के गांव तक से, आते थे।

हमउम्र वालो को याद होगा कि उस समय हम दीपावली के अगले दो-तीन दिन सभी रिश्तेदार व मित्रगण के घरो पर जाते थे। बड़े-बुजूर्ग के पांव छू कर उनसे आशीर्वाद लेते थे और उन घरो के छोटे हमसे आशीर्वाद लेते थे। सभी के यहां खुद के घर में बनी मिठाई खिलाई जाती थी। कुछ घरो में सुखे मेवे भी मिलते थे। खास बात यह होती थी कि हमारे घर पर भी सभी आते थे चाहे हम उनके घर हो आए है। कितना अच्छी परंपरा थी जो अब देखने को नहीं मिल रही है। आजकल तो बच्चे जैसे अपनी मित्र मंडली को छोड़कर किसी से मिलना ही नहीं चाहते हैं।

इसी वातावरण में एक बहुत ही सकारात्मक पहल रांची के माहेश्वरी समाज ने चौपाल के तहत इसी वर्ष शुरू की है। वो इस परंपरा को पुनः जीवित करने की कोशिश कर रहे है और निश्चित सफल होंगे। इस समाज ने अपने सभी वरिष्ठ सदस्यों से आग्रह किया है कि वो दीपावली के अगले दिन दो-तीन घरो में परिवार से मिलने जरूर जाएंगे। खुशी की बात है कि लेख लिखने तक ज्यादातर सदस्य अपनी सहमती दे भी चुके है। हमारा प्रयास होना चाहिए की इस परंपरा को वापस प्रचलित करे। आपस के मेल जोल बढ़ाने में, मन मुटाव कम करने में ये बाते बहुत मददगार होती हे।

दीपावली के त्यौहार को मनाने का तरीका कुछ बदल जरूर गया हैं पर आने वाली पीढ़ी को हम अपने सही संस्कार दे, यह दायित्व समाज का ही हैं।

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