We have all been criticising about what is not being done by the government. However, we rarely give our own solutions to any problem that we see. May be the suggestion is ridiculous - but still if we look things in a positive way may be we can suggest solutions which some one can like and decide to implement. I know this is very wishful thinking but this is surely better than just criticising.

Thursday, November 14, 2024

बुजुर्ग सलाहकार बने, निर्णायक नहीं

 पिछले दिनो दिल्ली के सीरी फोर्ट सभागार में श्री विजय कौशल जी महाराज से श्री राम कथा सुनने का सौभाग्य मिला। एक शाम को अपने प्रवचन में उन्होंने, हर घर में चल रहे जेनरेशन गेप, बड़ो-छोटो के बीच समन्वय की कमी पर बोल रहे थे। उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहीं कि घर के बड़े बुजुर्ग सलाहकार बने, निर्णायक नहीं।  मुझे उनकी यह बात मन को छू गई। मेरे आज के लेख का यही शीर्षक है।

इन दिनों बहुत से वाट्सएप ग्रुप पर ऐसे पोस्ट भी प्रचलित है जिनमे मैसेज यहीं होता है कि घर का वातावरण ठीक रखने के लिए बड़ो को बच्चों के निर्णय पर टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। दुख तो उस समय होता है जब हम जानते हुए भी गलत निर्णय को सही दिशा नहीं दे पाते।

ऐसी कहानियां आज घर घर की है। कोई बिरले खुशकिस्मत परिवार होंगे जहां सब कुछ ठीक ठाक हो, पिता और बेटे बैठकर अपने निर्णय सकारात्मक वातावरण में लेते हो। अब तो काफी परिवार ऐसे मिल जाएंगे जहां पर दो जेनरेशन एक साथ रहती ही नहीं है।

हम यहां बात करेंगे उन परिवारों की जहां पर तीन जेनरेशन बेटा पिता और पोता साथ रहते है। आजकल के माता-पिता जिस तरीके से अपने बच्चों को पालते हैं और जिस तरीके से वह खुद पले थे, कोई 30 – 35 साल पहले, उसमें बहुत अंतर आ गया है। पहले के समय में ज्यादातर संयुक्त परिवार होता था और केवल एक भाई का परिवार ही नहीं पलता था। सभी भाइयों के अपने-अपने बच्चे भी होते थे और सब मिलजुल कर रहते थे। उन्हें घर का बड़ा बच्चों की किसी गलती पर डांट भी देता था तो कोई दूसरा टोकता नहीं था।

आज की स्थिति बिल्कुल ही बदल है। छोटे-छोटे परिवार होने लगे, चाचा-ताऊ तो ज्यादातर परिवार में मिलेंगे ही नहीं। कई बार यह भी देखा गया कि एक भाई के बच्चों को अगर दूसरे भाई की पत्नी ने कुछ बोल दिया तो इसी बात पर अनबन होने लगती है। पेसेन्स या धैर्य नाम कि चीज तो आज कल के नौजवानो में मिलनी मुश्किल है। ऐसे में दादा-दादी क्या बोल दे यह तो किसी को बर्दाश्त ही नहीं होता है। बड़ो के अनुभव और उसके आधार पर उनकी डिसिप्लिन भरी बात को मानने को कोई भी तैयार नहीं होता है, जबकि सभी को पता है घर में बुजुर्ग हर समय परिवार के सुख का ही ख्याल रखेंगे, कभी भी किसी को दुखी नहीं होने देंगे। मन मे यही विचार आता है कि शायद आजकल के नौजवानों को हम बुजुर्ग ही पेशेंस सीखाना भूल गए हैं। यह गलती भी तो हम बुजुर्गों की ही हैं। ऐसे वातावरण में सबसे सही निर्णय तो यही होगा कि हम ज्यादा रोक-टोक ना करें छोटों के काम पर। सही सही परिदृश्य प्यार से छोटो के सामने रख दे। और फिर निर्णय उन्हीं को लेने दे।

आजकल तो छोटी उम्र के बच्चों में भी यह भावना आ गयी है कि घर में बड़ो से ज्यादा अच्छी सलाह उनको मित्रों से मिलेगी। और इस टेक्नोलॉजी के युग में सब कुछ तो गूगल महाराज ही बता देते हैं। फिर बड़ों का दिया हुआ ज्ञान किस काम का। जब बड़े कोई बात बोलते हैं तो तुरंत गूगल में जाकर पहले उस बात की सत्यता को जानने की कोशिश करते हैं बच्चे। उस समय उनके मन में यह विचार नहीं आता है कि बड़ों की जो भावना है वह उनके केवल ज्ञान से ही अर्जित नहीं की गई है बल्कि उनके इतने वर्षो के अनुभवों से भी वह अपना विचार रख रहे हैं। बहुत बार तो यह भी देखने को मिलता है कि बड़ों ने कोई बात कहीं और उसके जवाब में उन्हें तुरंत मोबाइल पर गूगल का उस विषय पर कुछ और मत बता दिया जाता है और यह दर्शाया जाता है कि बड़ो ने जो बताया वह गलत है।

हम ऐसी स्थिति आने ही क्यों दें? क्यों हम अपने अंदर ऐसी भावना जागृत होने दें जिससे कि हमें कोई अपराध बोध हो? अच्छा तो हो कि हम जो भी सुझाव देना चाहते हैं वह इस तरीके से दें कि सामने वाले को भी खराब ना लगे और वह उस पर विचार करने पर विवश हो जाए। एक उदाहरण दें तो हम बोल सकते हैं कि “मेरे विचार में शायद इस प्रॉब्लम को इस तरह सॉल्व किया जा सकता है। वैसे यह तो केवल मेरा विचार है, तुम ही इस पर पूरी रिसर्च करके डिसीजन ले लो।” सारा खेल तो होता है कि हमारी बातें किस तरीके से आगे बढ़ती है, किस टोन में बात हम करते हैं। यही सब बहुत जिम्मेदारी के साथ हमें भी निभाना होगा।

हम बड़े जरूर हैं लेकिन यह मानकर चलें की जनरेशन गैप तो है और इस जेनरेशन गैप में जो दिक्कतें आ रही हैं उसके लिये बहुत हद तक हम स्वयं  जिम्मेदार हैं, शायद। पहले ऐसा नहीं होता था। उसका एक मूल कारण हमारा संयुक्त परिवार था। अब तो वह सब एक सपना ही प्रतीत होता है और आगे क्या होगा यह तो भगवान ही बता सकता है। अन्ततः मूल बात तो यहीं है कि हम बुजुर्ग सलाहकार की भूमिका में ही रहें। हम भी खुश रहें ओर परिवार भी खुश रहें।

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