We have all been criticising about what is not being done by the government. However, we rarely give our own solutions to any problem that we see. May be the suggestion is ridiculous - but still if we look things in a positive way may be we can suggest solutions which some one can like and decide to implement. I know this is very wishful thinking but this is surely better than just criticising.

Thursday, August 14, 2025

क्या दादी-नानी के नुस्खे जल्द लुप्त हो जायेंगे?

“दादी, पेट में बहुत दर्द हो रहा है।” छोटी सी बच्ची अपने दर्द से कराहते हुए अपनी दादी से कहती है। मम्मी डॉक्टर से अपॉइंटमेंट की कोशिश में लगी हैं, पर तब तक तो बिटिया को राहत नहीं। दादी मुस्कराते हुए एक गिलास गर्म पानी मंगवाती हैं, किचन की आलमारी से अजवाइन का चूर्ण निकालती हैं और बच्ची को एक चम्मच अजवाइन के साथ वह गर्म पानी दे देती हैं। कुछ ही समय में वह बच्ची फिर से खेल में मग्न हो जाती है। तब तक तो डॉक्टर के क्लिनिक का फोन भी नहीं मिला।

ऐसे दृश्य अब भी कई घरों में देखने को मिलते हैं, पर क्या यह अगली पीढ़ी में भी ऐसे ही जारी रहेंगे? यह एक बड़ा सवाल है।

आज की पीढ़ी विज्ञान-आधारित चिकित्सा पर ही विश्वास करती है, और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। परंतु समस्या तब होती है जब वे पारंपरिक घरेलू ज्ञान को पूरी तरह नकार देते हैं। वह ज्ञान जो अनुभवों की परतों से गुजरकर पनपा, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता आया। क्या वह अब केवल किताबों और इंटरनेट आर्टिकल्स में ही रह जाएगा?

हममें से अधिकांश ने अपने बचपन में दादी-नानी के नुस्खों का लाभ लिया है। घर के किचन में ही एक मिनी मेडिकल स्टोर जैसा इंतज़ाम होता था। अजवाइन, हींग, सौंफ, हल्दी, दालचीनी, तुलसी, लौंग, शहद, घी… – ये सभी ना सिर्फ़ स्वाद के लिए बल्कि सेहत के लिए भी जरूरी माने जाते थे।

अगर गला खराब हो जाए तो गरम पानी में नमक डालकर गरारा करना, कफ की समस्या हो तो अदरक और शहद का मिश्रण, नींद नहीं आ रही हो तो गर्म दूध में थोड़ा सा जायफल – ये सभी नुस्खे हमारे जीवन का हिस्सा रहे हैं।

यही नहीं, जीवनशैली से जुड़े कई ऐसे नियम भी होते थे जिन्हें हम बिना समझे पालन करते थे। जैसे – रात में दही न खाना, या खाली पेट नींबू पानी से दिन की शुरुआत करना। ये बातें केवल परंपरा नहीं थीं, इनके पीछे विज्ञान छुपा था – बस अभिव्यक्ति अलग शैली में होती थी।

आज के आधुनिक जीवन की गति इतनी तेज हो गई है कि वहां ठहरकर कोई दादी का मसाला डब्बा खोलने का समय नहीं। बाजार में मिलने वाली “इंस्टेंट रिलीफ” की गोलियों और सिरप ने हमारी धैर्य की परीक्षा ही बंद कर दी है। फिर चाहे वह साइड इफेक्ट के साथ क्यों न आए।

दूसरी ओर, बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है, पर उनका ज्ञान अगली पीढ़ी तक नहीं पहुंच रहा। नई पीढ़ी उनसे संवाद कम कर रही है, और बुजुर्गों का आत्मविश्वास भी कम हो गया है। वे अपने नुस्खे या सलाह देने में संकोच करने लगे हैं क्योंकि बच्चों को अब “गूगल” ज्यादा विश्वसनीय लगता है।

पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न हमें खुद से पूछना चाहिए – क्या केवल एलोपैथिक इलाज से हर समस्या का समाधान संभव है? क्या हम परंपराओं को पूरी तरह छोड़कर वास्तव में समृद्धि की ओर जा रहे हैं, या एक गहरे खालीपन की ओर?

आयुर्वेद, सिद्ध चिकित्सा, यूनानी और होम्योपैथी जैसी पद्धतियां केवल वैकल्पिक नहीं, बल्कि हजारों वर्षों के परीक्षण की कसौटी पर खरी उतरी पद्धतियां हैं। पर इनका मूल आधार है – शरीर को समझना, प्रकृति से तालमेल और धैर्य। और यह धैर्य आज की पीढ़ी में बहुत कम है।

दादी-नानी के ये नुस्खे सिर्फ उपचार नहीं थे, वे एक जुड़ाव थे – परिवार से, प्रकृति से और अपनी जड़ों से। जब दादी बच्चे के माथे पर हाथ रखती थीं और कहती थीं – “कुछ नहीं हुआ, बस थोड़ा आराम कर लो” – तो वह स्पर्श ही आधा इलाज बन जाता था। यह भावनात्मक उपचार भी अब दुर्लभ होता जा रहा है।

हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह ज्ञान यदि संरक्षित नहीं किया गया तो अगली पीढ़ियां इससे वंचित रह जाएंगी। आज आवश्यकता है कि हम इस पारंपरिक ज्ञान को दस्तावेज़ करें, बच्चों को सिखाएं, और घर में इसे पुनः सक्रिय करें। चाहे वह एक नोटबुक हो जिसमें दादी के नुस्खे लिखे हों, या बच्चों के साथ बैठकर मसालों के उपयोग की कहानी सुनाना – हर प्रयास मूल्यवान है।

शायद हमें स्कूलों में ‘परंपरागत स्वास्थ्य ज्ञान’ जैसी वैकल्पिक शिक्षा आरंभ करनी चाहिए, जिससे बच्चे आधुनिकता और परंपरा के संतुलन को समझें।

दादी-नानी के नुस्खे एक धरोहर हैं – अनुभव, संवेदना और प्रकृति से जुड़ाव की। उन्हें खो देना केवल ज्ञान की हानि नहीं, सांस्कृतिक विरासत की क्षति भी है।

इसलिए आइए, इस विलुप्त होते खजाने को संजोएं, सहेजें और साझा करें, ताकि अगली पीढ़ियां जब पूछें “दादी, क्या करना है?” तो सही उत्तर देने वाली कोई दादी-नानी हो घर में, न कि सिर्फ आपके माबाईल स्क्रीन पर।

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