We have all been criticising about what is not being done by the government. However, we rarely give our own solutions to any problem that we see. May be the suggestion is ridiculous - but still if we look things in a positive way may be we can suggest solutions which some one can like and decide to implement. I know this is very wishful thinking but this is surely better than just criticising.

Thursday, July 24, 2025

Seniors Must Embrace Change

 A question for everyone — do you remember any of your oldest memories that still excite you when you think about them? Perhaps a childhood game, playful fights with siblings, or moments spent with classmates in school. Recall those times when small quarrels had a certain sweetness, and everything returned to normal within moments. Trips with family to a relative’s house during holidays or pilgrimages to sacred places — these are just some of the many memories that remain alive in our hearts even today.

Now the question arises — are today’s children or our grandchildren experiencing similar emotions? Perhaps not. Life today has transformed significantly. The family structure has changed, nuclear families are now common, social interaction has reduced, and the digital age has created an entirely new world for children.

This change is not confined to social settings alone; it extends to technology, thinking, education, relationships, lifestyle — in fact, every sphere of life has evolved. To assume that change is wrong simply because it is different from our times is a negative perspective. Change is the eternal truth of life. Every generation considers what they experience in their time as the ideal.

It is the responsibility of seniors not to view these changes merely with criticism, but to understand and accept them. If we wish to maintain a connection with the younger generation, it is essential to understand their world and adapt ourselves accordingly.

Today’s children study online, build friendships on social media, video games are part of their daily routine, and the internet has broadened their knowledge base. While all this may seem unfamiliar or uninteresting to us, it is through these mediums that they are developing their interests, understanding, and capabilities.

If seniors reject these changes, the gap between generations will only widen. On the other hand, if they approach these new developments with curiosity and a willingness to learn, it can be a new journey for them too. Mobile phones, the internet, online banking, social media — all of these can be useful to us as well, provided we are ready to adopt them. Many elderly individuals are indeed learning new things. The challenge, however, is that technology evolves and upgrades so rapidly that it becomes difficult to keep up.

Moreover, change is not limited to technology alone. Social values, relationship dynamics, and lifestyles have also transformed. Joint families have given way to nuclear families. Life once had a slower, more patient rhythm — today, it’s a fast-paced race. Needs were once limited, but now options and aspirations have multiplied.

In such a scenario, the role of seniors becomes even more important. They can guide the younger generation with their experience, life values, and simplicity — but this is possible only if they themselves are willing to move forward with time. We cannot stop the flow of time, but we can certainly flow with it and shape our own direction.

We must also understand that change does not only come from the outside — it begins within. Only when our thinking is flexible can we remain relevant in a changing world. If we want to connect with our grandchildren, we must make an effort to understand their games, their studies, their technology. Only then will they be interested in listening to our experiences and learning from them.

Many seniors complain that no one listens to them anymore, that children are busy, and families don’t have time. But have we ever thought about whether we’ve tried to truly engage with them? When we try to see things from their perspective, they too will respect our feelings and experiences.

Therefore, if we want to maintain our role within the family and have our voice heard in society, we must accept change and be willing to change ourselves. Age should not merely be a count of years, but a reflection of experience, understanding, and adaptability. Remember, times change, but core values remain the same — love, belonging, dialogue, and cooperation. If we embrace change while holding on to these values, life can remain beautiful at every age.

(Adapted from my Hindi article of the week.)

वरिष्ठजन बदलाव को स्वीकार करें

एक प्रश्न सभी से — क्या आपको अपनी सबसे पुरानी ऐसी कोई बात याद है, जिसे सोचते ही आज भी रोमांच हो उठता है? कभी बचपन का कोई खेल, कभी भाइयों-बहनों के साथ की तकरार या स्कूल में सहपाठियों के साथ बिताए पल। याद कीजिए वह समय जब छोटे-छोटे झगड़े भी होते थे लेकिन उनमें एक मिठास होती थी। थोड़ी देर में सब सामान्य हो जाता था। परिवार के साथ छुट्टियों में किसी रिश्तेदार के यहां जाना या किसी तीर्थ स्थल की यात्रा — ऐसे अनेक पल जो आज भी स्मृतियों में जीवित हैं।

अब प्रश्न उठता है — क्या आज के बच्चे या हमारे पोते-पोतियां ऐसी ही भावना से गुजर रहे हैं? शायद नहीं। आज का जीवन परिवर्तित हो चुका है। परिवारों का ढांचा बदल गया है, एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है, सामाजिकता कम हो गई है और डिजिटल युग ने बच्चों की दुनिया ही अलग बना दी है।

यह बदलाव केवल सामाजिक परिवेश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि तकनीक, सोच, शिक्षा, संबंध, रहन-सहन या यूं कहें तो हर क्षेत्र में परिवर्तन आया है। यह मान लेना कि बदलाव गलत है, केवल इसलिए कि वह हमारे समय से भिन्न है, यह दृष्टिकोण नकारात्मक ही माना जाएगा। परिवर्तन जीवन का शाश्वत सत्य है। हर पीढ़ी अपने समय में जो कुछ जीती है, वही उसके लिए आदर्श बनता है।

वरिष्ठजनों का दायित्व है कि वे इस बदलाव को केवल आलोचना की दृष्टि से न देखें, बल्कि इसे समझें और स्वीकार करें। यदि हम नई पीढ़ी के साथ संवाद स्थापित रखना चाहते हैं तो उनकी दुनिया को समझना और उसमें खुद को ढालना आवश्यक है।

आज बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई करते हैं, मित्रता भी सोशल मीडिया पर निभाते हैं, वीडियो गेम्स उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, और ज्ञान का दायरा इंटरनेट ने व्यापक कर दिया है। यह सब भले ही हमें अपरिचित और शुष्क लगे, लेकिन इन्हीं में वे अपनी रुचि, समझ और सामर्थ्य का विकास कर रहे हैं।

यदि वरिष्ठजन इस परिवर्तन को अस्वीकार कर देंगे तो पीढ़ियों के बीच की दूरी और बढ़ती जाएगी। दूसरी ओर यदि वे जिज्ञासा के साथ इन नई चीजों को सीखने का प्रयास करें तो उनके लिए भी यह एक नयी यात्रा बन सकती है। मोबाइल फोन, इंटरनेट, ऑनलाइन बैंकिंग, सोशल मीडिया — ये सब हमारे लिए भी उपयोगी हो सकते हैं बशर्ते हम इन्हें अपनाने को तैयार हों। ज्यादातर बुजुर्ग लोग भी बहुत कुछ सिख रहे हैं। दिक्कत यह होती है कि इनकी तकनिक में इतनी जल्दी जल्दी परिवर्तन या अपग्रेडेशन होते हैं कि उनके साथ चलना मुश्किल हो जाता है।

साथ ही, बदलाव का अर्थ केवल तकनीकी परिवर्तन नहीं है। सामाजिक मूल्यों, संबंधों के स्वरूप और जीवनशैली में भी परिवर्तन आया है। पहले संयुक्त परिवार होते थे, आज एकल परिवार हैं। पहले जीवन में धीमापन और धैर्य था, आज भागमभाग है। पहले जीवन सीमित आवश्यकताओं तक सिमटा था, अब विकल्प और आकांक्षाएं बढ़ गई हैं।

ऐसे में वरिष्ठजनों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। वे अपने अनुभव, जीवन मूल्य और सादगी की शिक्षा देकर नई पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है जब वे खुद समय के साथ चलने को तैयार हों। समय की धार को रोकना संभव नहीं है, लेकिन उसमें बहना और अपनी दिशा बनाना अवश्य संभव है।

हमें यह भी समझना होगा कि बदलाव केवल बाहर नहीं आता, भीतर से भी आता है। जब हमारी सोच लचीली होगी, तब ही हम बदलती दुनिया में प्रासंगिक बने रह सकते हैं। यदि हम अपने पोते-पोतियों से संवाद करना चाहते हैं, तो उनके खेल, उनकी पढ़ाई, उनकी तकनीक को जानने का प्रयास करना होगा। तभी वे भी हमारे अनुभवों को सुनना और समझना चाहेंगे।

कई वरिष्ठजन शिकायत करते हैं कि अब कोई सुनता नहीं, बच्चे व्यस्त हैं, परिवार समय नहीं देता। पर हमने कभी सोचा कि क्या हमने उनके साथ समरसता का प्रयास किया? जब हम खुद को उनके नजरिए से देखने का प्रयास करेंगे तभी वे भी हमारी भावनाओं का सम्मान करेंगे।

इसलिए, यदि हम चाहते हैं कि परिवार में हमारी भूमिका बनी रहे, समाज में हमारी बातों को सुना जाए, तो हमें बदलाव को स्वीकार कर, स्वयं में भी बदलाव लाना होगा। उम्र का अर्थ केवल वर्षों की गिनती नहीं, बल्कि अनुभव, समझ और लचीलापन होना चाहिए। ध्यान रहे, समय बदलता है, पर मूल्य वही रहते हैं — प्यार, अपनापन, संवाद और सहयोग। हम इन मूल्यों के साथ बदलाव को अंगीकार करें, तो जीवन हर उम्र में सुंदर हो सकता है।

बुढ़ापा, अभी न आ…

कुछ दिनों पहले की बात है। मैंने 75 वर्ष की उम्र पार कर ली। जीवन की इस अवस्था में जब पीछे मुड़कर देखता हूं, तो लगता है जैसे समय पंख लगाकर उड़ गया। अब सामने बुढ़ापा खड़ा है, और ऐसा लगता है जैसे वह कुछ ज्यादा ही तेजी से मेरी ओर बढ़ रहा है। यह एहसास और भी गहरा तब हो जाता है, जब सफर में अजनबी लोग मुझे “अंकल जी” कहकर संबोधित करते हैं। घर-परिवार और मित्रों की बातचीत भी उम्र को केंद्र में रखकर ही चलती है – कि अब क्या करना चाहिए और क्या नहीं। उस समय मन में एक विद्रोही विचार आता है – “क्या मैं अब भी यह कह सकता हूं कि बुढ़ापा, अभी न आ!”

याद आने लगते हैं वे दिन – भले ही 50 साल पहले की बात हो, पर लगता है जैसे कल ही की हो। कभी हम दौड़ते-भागते थे, उफान से भरे हुए, और आज… आज एक वॉकिंग स्टिक का सहारा चाहिए। शरीर धीरे-धीरे थकता है, पर मन अब भी जवान रहना चाहता है। कहीं पढ़ा था, या शायद किसी संत के प्रवचन में सुना था, कि भगवान ने मनुष्य को 100 वर्ष की उम्र दी है, लेकिन साथ ही अनुशासन, संयम और सजगता का पालन करने को भी कहा है। खानपान, व्यायाम और मानसिक विचारों में संतुलन रखा जाए तो यह उम्र आराम से पाई जा सकती है। पर शायद हम जीवन की दौड़ में इतना उलझे रहे कि इन बातों पर ध्यान ही नहीं दिया।

अब भूतकाल को बदला नहीं जा सकता, लेकिन वर्तमान हमारे हाथ में है। और भविष्य अभी भी हमारे प्रयासों पर निर्भर करता है। तो क्यों न इस बची हुई जिंदगी को ऐसे जिएं कि यह ‘सुनहरे वर्ष’ सच में सुनहरे बन जाएं?

हमें अब इस बात से कोई लाभ नहीं कि युवावस्था में क्या छूट गया, क्या करना था, और क्या नहीं किया। वह जिम्मेदारी अब नई पीढ़ी की है – और सच कहूं, वे हमारी बातों को सुनेंगे भी या नहीं, यह कहना कठिन है। हमने जो कहा, जो सिखाया, वह हमारे समय की भूमिका थी। अब समय है खुद पर ध्यान देने का – शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बने रहने का। हम क्या कर सकते हैं इस पर जरा विचार करे।

  1. बुढ़ापे से कहें – ठहरो अभी!
  2. स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें
  3. मानसिक सेहत का ध्यान रखें
  4. रिश्तों को संजोएं
  5. नए शौक विकसित करें
  6. सामाजिक योगदान में सक्रिय रहें

बुढ़ापे से कहें – ठहरो अभी!

हां, सबसे पहले तो यही प्रण लें कि बुढ़ापा अभी न आए। हम उसे बुलाने में थोड़ा विलंब कर सकते हैं, अगर हम चाहें तो। आप कहेंगे की कौन नहीं चाहेगा यह करना पर क्या हम अपनी जीवन शेली को आवश्यकतानुसार ढ़ालते है। और यहां पहले की बात नहीं करेंगे, कि क्या क्या कर सकते थे, हम केवल बात करेंगे कि अभी हम क्या कर सकते है।

स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें

हर दिन शरीर के लिए 2–3 घंटे अवश्य निकालें। योग, प्राणायाम, मॉर्निंग वॉक, हल्का व्यायाम – जो भी संभव हो, उसे आदत बनाएं। यह न सिर्फ शरीर को सक्रिय रखता है, बल्कि आत्मविश्वास भी बनाए रखता है। सब जानते है, पर सवाल तो यह है कि क्या हम इस का नियमित पालन करते है। मन में यह निश्चित करने की आवश्यकता है कि आलस्य किसी भी बहाने नहीं करना है।

मानसिक सेहत का ध्यान रखें

यह उम्र सबसे ज्यादा मनोबल के सहारे ही चलती है। सकारात्मक लोगों से मिलना, अच्छी किताबें पढ़ना, प्रेरणादायक लेखों या प्रवचनों को सुनना, मानसिक शक्ति को बनाए रखता है। नकारात्मकता से दूर रहें – यह एक धीमा ज़हर है, जो बुजुर्गों को सबसे पहले जकड़ता है। आजकल बहुत से ऐसे खेल आपको मिल जाएंगे जिसे खेलने से मानसिक सेहत सुधारने में सहयोग मिलता है। मेरे कुछ मित्रों ने सलाह दी कि क्रॉसवर्ड, सुडोकू जैसे मस्तिष्क के खेल नियमित रूप से करें। मैंने भी अब इन्हें अपनाया है। इससे याददाश्त बनी रहती है और मस्तिष्क की कार्यक्षमता बनी रहती है।

रिश्तों को संजोएं

इस उम्र में सबसे जरूरी है – संबंधों की गर्माहट। परिवार, मित्र, पड़ोसी – सभी से संवाद बनाए रखें। साझा हंसी, हल्की-फुल्की बातें, एक-दूसरे का सहारा – यही जीवन की सच्ची थकान को मिटाते हैं। कभी फोन करके हालचाल पूछ लें, कभी चाय पर बुला लें, कभी कोई पुरानी बात याद करके साथ हंस लें – ये सब जीवन में नई ऊर्जा भरते हैं। हम उम्र के लोगों के साथ आउटिंग पर जाना भी बहुत लाभदायक हो सकता है।

नए शौक विकसित करें

क्यों न अब कुछ नया शुरू किया जाए? पेंटिंग, बागवानी, संगीत, लेखन – वह सब जो जीवन की व्यस्तता में छूट गया था। ये शौक न सिर्फ रचनात्मक ऊर्जा देते हैं बल्कि अकेलेपन को भी दूर करते हैं। हो सकता है आप इनमें से कुछ में एक्सपर्ट हो – इनमें आप दुबारा नियमित अपने आप को व्यस्त करे। एक कदम और आगे बढ़ कर आप अपनी यह कला दूसरो के साथ भी बांट सकते है।

सामाजिक योगदान में सक्रिय रहें

हमारे अनुभव किसी खजाने से कम नहीं। बच्चों को और युवा को पढ़ाना का दायित्व आप ले सकते है। आप जब पढ़ाएंगे तो साथ में आप स्वाभाविक रुप में संस्कार भी देंगे। विचार किजिए इससे कितनो को आप लाभ पहुंचाएंगे। साथ ही आपको इस कार्य से जो खुशी मिलेगी उसका वर्णण करना मुश्किल है।

आपको बस मन में ठान लेना है कि अभी मन जवान है, बुढ़ापा ठहर जा। आपका सफर बाकी है और थकना मना है, भले आपकी उम्र कहती है रुक जा पर दिल तो कह रहा है चल। हमें सुनहरा बुढ़ापा नहीं, सक्रिय जीवन चाहिए। जीवन के इस मोड़ पर भी, हमारी उम्मीद जवान है, बुढ़ापा दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है, पर मैंने ताला लगा दिया है, यहीं हमें मन में रखना है। हमें अपनी उम्र की नहीं, ऊर्जा की गिनती करनी हैं और इसे बढ़ाने का भरपूर प्रयास करना है।

Thursday, July 10, 2025

जीते जी प्रशंसा करिए, केवल विदाई पर नहीं

हमारा समाज एक विचित्र मनोवृत्ति से ग्रसित है — हम अक्सर किसी की अच्छाई तब ही खुलकर कहते हैं जब वह व्यक्ति हमारे बीच नहीं रहता। शमशान घाट या श्रद्धांजलि सभाएं — ये वो जगहें बन गई हैं जहां हम किसी के जीवन की महानताओं का उल्लेख करते हैं, उनके गुणों को सराहते हैं, और यह कहते नहीं थकते कि वह कितने नेक इंसान थे।
घाट पर अक्सर समूह में लोग बैठकर यही चर्चा करते हैं – “बहुत सज्जन थे, हर किसी की मदद को तत्पर रहते थे, परिवार का ख्याल रखते थे, समाज सेवा में भी आगे रहते थे…” और न जाने कितनी बातें। लेकिन यही सवाल अगर हम खुद से पूछें — क्या जब वह व्यक्ति जीवित थे तब भी हमने उनके इन गुणों की सराहना की थी? क्या कभी उनके सामने कहा था कि हम उनका कितना सम्मान करते हैं, या उनका व्यवहार हमें कितना प्रेरित करता है?

सच कहें तो अक्सर जवाब “नहीं” होता है। हम प्रशंसा करने में कंजूसी करते हैं। कहीं यह अहं का विषय बन जाता है, कहीं संकोच आड़े आ जाता है, तो कहीं यह सोच कि “इतनी भी क्या प्रशंसा करनी?” लेकिन जब व्यक्ति इस संसार को छोड़ जाते है, तब हम उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ने लगते हैं। सोचिए, इन शब्दों से उस व्यक्ति को क्या लाभ? वह तो इन शब्दों को सुनने के लिए अब नहीं रहा।

प्रशंसा की शक्ति:

हर इंसान के भीतर एक बच्चा होता है जो चाहता है कि उसे सराहा जाए, उसके प्रयासों को पहचाना जाए। प्रशंसा करना केवल शब्दों का खेल नहीं है, यह एक सजीव ऊर्जा है जो किसी के आत्मविश्वास को नई उड़ान देती है। अगर किसी ने अच्छा काम किया है, या उनके व्यवहार में कोई सुंदरता है — तो क्यों न उसे जीते जी यह कह दिया जाए?

जरा सोचिए, जब कोई हमें कहता है, “आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं”, तो हमें कितना अच्छा लगता है। दिल खुश हो जाता है, मन उत्साहित हो जाता है और हम और बेहतर करने की प्रेरणा पाते हैं। यही प्रभाव तब और अधिक होता है जब कोई हमारे गुणों की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा करता है। इससे न केवल वह व्यक्ति आनंदित होता है, बल्कि समाज में भी एक सकारात्मक लहर फैलती है।

प्रशंसा करने की संस्कृति को अपनाइए:

हमें यह समझना होगा कि प्रशंसा करने से कोई छोटा नहीं होता, बल्कि यह हमारे बड़े दिल और विशाल सोच का प्रमाण है। जब हम दूसरों के गुणों को खुले दिल से स्वीकारते हैं, तो हम एक बेहतर समाज की ओर कदम बढ़ाते हैं। ऐसे समाज की ओर, जहां प्रतिस्पर्धा की जगह प्रेरणा हो, ईर्ष्या की जगह सम्मान हो।

प्रशंसा करने का मतलब केवल शब्दों में कुछ अच्छा कह देना नहीं है — इसका तात्पर्य है कि हम किसी के अच्छे कार्यों को मान्यता देते हैं, उन्हें उनके जीवन में ही उनके योगदान के लिए सम्मानित करते हैं। यह सम्मान उनके आत्मबल को मजबूत करता है और उन्हें और भी अच्छा करने की प्रेरणा देता है।

सराहना करने से उपजता है सद्भाव:

जब आप किसी की सच्ची प्रशंसा करते हैं, तो आपके और उस व्यक्ति के बीच एक आत्मीयता पनपती है। यह संबंध केवल औपचारिक नहीं होता, बल्कि दिल से दिल का संबंध होता है। ऐसे संबंधों की बुनियाद होती है – समझ, प्रेम और परस्पर आदर।

सच्ची प्रशंसा वह संजीवनी है जो न केवल आत्मा को प्रफुल्लित करती है, बल्कि व्यक्ति को और बेहतर करने की प्रेरणा भी देती है। जब किसी के प्रयासों को ईमानदारी से सराहा जाता है, तो उसे अपने कार्य में मूल्य और उद्देश्य दिखाई देने लगता है। यह प्रशंसा आत्मविश्वास को बल देती है, थके कदमों को गति देती है और नए सपनों को आकार देती है। सच्चे शब्दों की यह ऊर्जा व्यक्ति को न केवल वर्तमान में उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करती है, बल्कि भविष्य में और ऊंचाइयों को छूने का साहस भी प्रदान करती है।
यह भी समझिए कि आपकी कही गई एक सकारात्मक बात, किसी के मन से निराशा का अंधेरा मिटा सकती है। वह व्यक्ति अगर किसी संघर्ष से गुजर रहा है, तो आपकी एक सच्ची प्रशंसा उसे जीवन की ओर लौटने का हौसला दे सकती है।

एक विनम्र आग्रह:

तो आइए, आज से ही यह संकल्प लें कि हम उन लोगों की प्रशंसा करेंगे जिनसे हम प्रभावित हैं — चाहे वे हमारे सहकर्मी हों, परिवारजन, मित्र, या कोई साधारण व्यक्ति, जिनकी कोई साधारण सी बात भी हमें छू जाती है।

मरने के बाद की गई प्रशंसा उस व्यक्ति तक नहीं पहुंचती। लेकिन जीते जी की गई तारीफ़ एक अमिट छाप छोड़ जाती है – न केवल सुनने वाले के हृदय में, बल्कि कहने वाले की आत्मा में भी। ध्यान रहे कि यह प्रशंसा या अभिनंदन आज करनी है, कल‌ पर न छोड़ें।

अनुभव की जीवित पुस्तकें हैं बुजुर्ग महिलाएं

जब भी बुजुर्गों की बात होती है, तो अधिकतर चर्चा पुरुषों के अनुभव, संघर्ष और योगदान पर ही केंद्रित रहती है। लेकिन क्या हमने कभी ठहरकर यह सोचा है कि हमारे घरों की बड़ी बुजुर्ग महिलाएं भी अनुभव की जीवित पुस्तकें हैं, जिनमें जीवन की अनगिनत कहानियाँ, परंपराओं की गहराई और व्यवहारिक ज्ञान छिपा हुआ है?

आज की तेज़ रफ्तार जिंदगी में हम अक्सर उस अनमोल खजाने को नज़रअंदाज़ कर देते हैं जो हमारे घर की बड़ी महिलाएं अपने भीतर समेटे बैठी होती हैं। वे न केवल परिवार की रीढ़ रही हैं, बल्कि समय के साथ उन्होंने समाज, रिश्तों और जीवन के प्रति जो समझ विकसित की है, वह नई पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन का काम कर सकती है।

हमारे समाज में दादी-नानी का स्थान विशेष रहा है। उनके पास कहानियों का भंडार होता है, जिनमें न केवल मनोरंजन होता है, बल्कि जीवन मूल्य भी समाहित होते हैं। उनकी कहानियाँ हमें नैतिकता, सहिष्णुता, त्याग और प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं। परंतु अफसोस की बात यह है कि अब हम इन बातों को ‘पुराना जमाना’ कहकर टाल देते हैं और उनका महत्व कम कर देते हैं।

बड़ी बुजुर्ग महिलाओं ने अपने जीवन में अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ देखी होती हैं — आर्थिक तंगी, सामाजिक बदलाव, पारिवारिक चुनौतियाँ — और इन सबसे पार पाकर उन्होंने जो धैर्य और समझ विकसित की है, वह किसी भी स्कूल या कॉलेज से नहीं सीखी जा सकती। उनके अनुभव हमें जीवन की कठिन परिस्थितियों में संतुलन बनाना सिखा सकते हैं।

आज की पीढ़ी तेज़ी से डिजिटल और व्यावसायिक दुनिया की ओर बढ़ रही है, लेकिन साथ ही वह मानसिक तनाव, अकेलेपन और असंतुलन से भी जूझ रही है। ऐसे में यदि हम अपने घर की बुजुर्ग महिलाओं से संवाद करें, उनके अनुभवों को सुनें, तो शायद हम एक संतुलित जीवन की दिशा में बढ़ सकें। वे हमें सिखा सकती हैं कि सीमित संसाधनों में भी खुश कैसे रहा जा सकता है, परिवार को एक सूत्र में कैसे बांधा जा सकता है, और विपरीत समय में कैसे धैर्य रखा जाता है।

उनकी इस समझ का हम लाभ कुछ इस प्रकार भी ले सकते हैं।

हमारे घरों में बुजुर्ग महिलाएं बहुत कुशलतापूर्वक आस पड़ोस के बच्चों को अपनी योग्यतानुसार तरह तरह के कौशल सिखा सकती है। इस उम्र में आकर सभी महिलाओं का पाक कला में निपुण होना तो स्वाभाविक ही है पर इसके अतिरिक्त अन्य कई कौशल सिखाने की क्षमता भी अनेकों में मिल जाएगी।

उदहारण स्वरूप अगर किसी में पढ़ाने की क्षमता है तो वो यह कार्य अविलंब शुरू कर सकती हैं, इस बढ़ी हुई उम्र में भी। हो सकता है बहुत तो शिक्षा के क्षेत्र से ही रिटायर हुए हों। अपने घर पर ही जरूरतमंद काम वाली के बच्चों को कोचिंग चाहिए तो उन्हें सहयोग कर सकती है। इसी तरह अगर पास ही कोई कन्सट्रंक्शन का काम चल रहा हो तो उन मजदूरों के बच्चों को भी पढ़ाने का बीड़ा उठाया जा सकता है। हम बहुत दान करते होंगे पर शिक्षा दान से अच्छा और क्या दान हो सकता है।

महिलाओं में सिलाई कढ़ाई का कौशल भरपूर होता है। ये जब छोटी थी तब तो यह सब सिखना अनिवार्य ही होता था। बहुतों को तो यह भी याद होगा कि उनको विवाह के समय यह पूछा जाता था कि वो क्या क्या सिलाई, कढ़ाई और बुनाई कर सकती है। अपने घरों पर जो काम वाली बाई आती है, उन्हें या उनकी लड़कीयों को यह कला सिखायी जा सकती हैं। उनको अतिरिक्त आय का साधन मिल जाएगा।

कितने तो अपने युवावस्था में गाने-बजाने में एक्सपर्ट रही होगी। वो अपनी इस कला को सिखा सकती है। ये तो कुछ उदाहरण हमने यहां दिये है। आपका ध्यान इस ओर भी ले जाना चाहेंगे कि कुछ ही माह पूर्व नेवर से रिटायर्ड यूट्यूब चैनल के लिए हमने एक 85 वर्षिय महिला से साक्षात्कार लिया था जो आज भी अपने घर में हस्तकला कर कुछ न कुछ बनाती रहती है। उनका समय अच्छे से व्यतीत हो जाता है और कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती है। हमारे नेवर से रिटायर्ड के यूट्यूब चैनल पर इनका वीडियो जरूर देखें। ऐसी बड़ी उम्र के कर्मशील व्यक्तित्व ओरों को भी प्रोत्साहित करते हैं।

अपने कॉलोनी के बच्चों को गीता और रामायण का पाठ पढ़ा सकते हैं। इससे अपना भी समय अच्छा बीतेगा और हम हमारे संस्कार भी उनको दे सकेंगे। मेरे कुछ परिचित यह कर भी रहे हैं और वह बहुत खुश हैं। उनके मन में यह विचार आता है कि वो समाज के लिए कुछ कर रहे हैं, अपने धर्म के लिए कुछ कर रहे हैं।

हम उन्हें केवल सेवा लेने का माध्यम न समझें, बल्कि उनका सम्मान करें, उनके विचारों को महत्व दें। उनके पास रसोई से लेकर रिश्तों तक की समझ है, जिसका लाभ हमें पूरे जीवन भर मिल सकता है।

अंत में यही कहना चाहूँगा कि यदि हम अपने घर की बड़ी महिलाओं को सिर्फ ‘बुजुर्ग’ नहीं, बल्कि ‘अनुभव की धरोहर’ मानें, तो हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ेंगे जो जड़ों से जुड़ा हुआ होगा और भविष्य की ओर सशक्त कदम बढ़ाएगा। उनकी उपेक्षा नहीं, उनका सहयोग — यही समय की माँग है।

‘फादर्स डे’ हम बुजुर्गों ने तो बचपन में सुना ही नहीं था

पाश्चात्य संस्कृति, जिसे पश्चिमी संस्कृति भी कहा जाता है, की देन है यह पितृ दिवस या फादर्स डे को मनाना। हर वर्ष, जून के तीसरे रविवार को जश्न, उपहार और श्रद्धांजलि के साथ मनाया जाता है फादर्स डे। इस वर्ष पिछले रविवार, 15 जून को यह मनाया गया। सुबह से फोन पर शुभकामना संदेश और सोशल मीडिया पर भावनात्मक संदेशों, तस्वीरों और धन्यवाद के साथ भरा पड़ा था। इस दिवस पर बच्चे, युवा और बड़े, गले मिलकर और कभी-कभी भव्य इशारों से अपना प्यार व्यक्त करते हैं।

बुजुर्गों ने तो, जब छोटे थे, इस दिवस के विषय में शायद सुना ही नहीं था। यह तो कुछ वर्षों से ही ज्यादा प्रचलित हुआ है। इसमें बिजनेस एंगल भी हैं और यह कहां भी जाता हैं कि इस से जुड़े व्यक्ति ही फादर्स डे मनाने का प्रचार प्रसार खूब करने लगे। कार्ड्स का चलन शुरु हुआ जब बच्चे अपने पिता को ग्रिटिंग्स भेजने लगे, गिफ्टिंग शुरू हुआ और होटलों में पार्टी मनाने लगे।

लेकिन एक बार यह विषेश दिन बीत जाने के बाद, कई लोग अपनी व्यस्त दिनचर्या में वापस लौट आते हैं, अक्सर उस व्यक्ति की शांत उपस्थिति को भूल जाते हैं जिसने कभी उन्हें अपनी पूरी दुनिया दी थी। क्या यह एक फोर्मेलिटि ही रह गई हैं कि ऐसे प्यार दिखाया जाता है। सच्चाई तो यह हैं कि फादर्स डे तो हर दिन उत्सव के रूप में मनाना चाहिए, क्योंकि पिता सिर्फ रिश्ते का नाम नहीं, वो एक भाव है जो हर खुशी की नींव रखता है।

हमारे पिता के लिए – खास तौर पर उनके बुढ़ापे में – एक दिन काफी नहीं होता। जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं, उन्हें भव्य शो या आकर्षक शब्दों की ज़रूरत नहीं होती। उन्हें वास्तव में हमारे समय, ध्यान और प्यार की ज़रूरत होती है – सिर्फ़ वर्ष में एक बार नहीं, बल्कि हर दिन। दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह है कि कई पिता, जीवन भर पालन-पोषण, भरण-पोषण और त्याग करने के बाद, अपने जीवन के अंतिम वर्षों में स्वयं को अकेला पाते हैं। एक बार जीवंत, ज़िम्मेदारी और काम से भरा जीवन धीरे-धीरे एकांत में सिमट जाता है – जून माह में उस एक दिन को छोड़कर। कोई भी उत्सव, चाहे कितना भी भव्य क्यों न हो, दैनिक देखभाल, सम्मान और जुड़ाव की कमी की भरपाई नहीं कर सकता।

हमारे पिता ही हमारे अस्तित्व का कारण हैं – न केवल जैविक रूप से, बल्कि भावनात्मक और नैतिक रूप से भी। उनकी ताकत ने हमें आकार दिया, उनके बलिदानों ने हमें अवसर दिए, और उनका शांत प्रेम अक्सर अनदेखा रह गया। अब, जब जीवन का चक्र घूम रहा है, तो यह हमारी बारी है कि हम वापस दें – गरिमा के साथ, उपस्थिति के साथ, ऐसे प्रेम के साथ जिसे व्यक्त करने के लिए कैलेंडर की आवश्यकता नहीं है। यह भी विचार करना होगा कि हमारा भी बुढ़ापा आएगा और उस समय हमें भी अपने बच्चों से प्रेम और उनके व्यस्त जीवन से कुछ समय की बहुत आस रहेगी।

झारखंड के मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन ने एक बहुत ही भावुक पोस्ट अपने पिता पर एक्स पर उनके साथ फोटो साझा की है और अपने जीवन में पिता की भूमिका को रेखांकित करते हुए लिखा कि पिता एक ऐसा वटवृक्ष है जिनकी छांव में आत्मविश्वास पलता है और जड़ों से मिली सीख से जीवन का हर पल सार्थक हो जाता है।
एक वाट्सएप ग्रुप पर मिला यह संदेश सभी से साझा कर रहां हूं।

पिताजी के वो डायलॉग्स, जो बचपन में सिर्फ “शब्द” लगे थे, पर आज “सबक” बन गए हैं:

  1. “पढ़ाई पर ध्यान दो, बाकी सब बाद में!”
  2. “मैं जो कर रहा हूं, सब तुम्हारे लिए कर रहा हूं।”
  3. “खुद के पैरों पर खड़ा होना सीख।”
  4. “मेरे जैसे मत बन, मुझसे अच्छा बन।”
  5. “बड़ा आदमी बन, लेकिन अच्छा इंसान पहले बन।”
  6. “नाम रोशन करना, बस यही सपना है मेरा।”
  7. “खर्च सोच-समझकर करना, पैसे पेड़ पर नहीं उगते।”
  8. “बचपन जल्दी निकल जाएगा, सम्हल जा।”
  9. “पैसा कमाना आसान है, इज्जत कमाना मुश्किल।”
  10. “अपने फैसले खुद ले, लेकिन सोच समझकर।”
  11. “दोस्ती सोच समझकर करना, सब तेरे जैसे नहीं होते।”
  12. “हर वक्त तेरे पीछे नहीं रहूंगा, खुद लड़ना सीख।”
  13. “जो भी कर, मेरा सिर ऊँचा होना चाहिए!”
  14. “मुझे कुछ नहीं चाहिए बेटा, तू खुश रहे बस।”
  15. “कभी भी झूठ मत बोलना, चाहे हालात कैसे भी हों।”

ये कुछ शब्द ही नहीं है, एक एक शब्द में गहराई और अपनापन है। आज ये हर वाक्य जिंदगी की नींव जैसा लगता है। आपके पिताजी ने भी कभी इनमें से कुछ आपको कहा जरूर होगा।

आज की व्यस्त जीदंगी में जब हम अपना पूरा ध्यान जीविकोपार्जन पर लगाने के लिए मजबूर होते हैं, उन परिस्थितियों में भी अपने बुजुर्ग माता-पिता के देखभाल करने की जिम्मेदारी भी उठानी आवश्यक हैं। उनके साथ समय बिताना सबसे जरूरी है। फादर्स डे को, बधाई या केक पर समाप्त न होने दें। इसे कृतज्ञता और देखभाल के दैनिक उत्सव की शुरुआत – या निरंतरता – बनने दें। क्योंकि पिता एक दिन से ज्यादा के हकदार हैं। वे जीवन भर के प्यार के हकदार हैं।

बुजुर्ग पर्यावरण की रक्षा खूब करते हैं

अभी पिछले सप्ताह ही 5 जून को हमने पर्यावरण दिवस मनाया। मन में विचार आया कि हम बुजुर्ग जब छोटे थे तब इस विषय पर शायद ही कभी चर्चा होती थी। और आज तो किसी गोष्ठी में हो, परिवार के बीच हो या दोस्तों की महफिल ही क्यूं न हो, पर्यावरण – पोल्यूशन पर सब अपना ज्ञान बांटते रहते हैं।

समय बहुत बदल गया है। जनसंख्या तो बढ़ ही‌ गई है पर ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि बदल गई है हमारी जीवन शैली। आज आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं रही, देखा-देखी की होड़ में बहुत कुछ वो कर बैठते हैं जिससे हम पर्यावरण को हानि ही पहुंचाते हैं।

याद किजिए बचपन के वो दिन जब अपना शहर एक छोटा सा नगर होता था। आसपास जाने के लिए या तो हम पैदल ही निकल जाते थे या रिक्शा कर लेते थे। सड़क पर गाड़ियों की भीड़ नजर नहीं आती थी और आज तो किसी भी शहर में जाए, कोई जरूरी नहीं है कि वह मेट्रो शहर हो, ज्यादातर जाम ही लगा रहता है और गाड़ी के एग्जास्ट से पूरा वातावरण दूषित हो जाता है। सड़क पर चल रही गाड़ियों में एक या दो सवारी ही अक्सर नजर आती है, कारण घर पर सभी के पास तो अपनी अपनी गाड़ी हैं।

दूसरी ओर देखे तो, अपने इतनी बातें करते हैं प्लास्टिक के कम उपयोग करने की, पर नजर तो यह आता है कि इसमें दिनों दिन बढ़ोतरी हो रही है। एक उदाहरण लें तो हम देखते हैं शहरों में रोज सुबह हर घर से एक पोलिथिन का बैग पिछले दिन का कचरा भरा हुआ निकलता है। कोई डाटा तो नहीं है पर टनों में यह पॉलिथिन प्रतिदिन फैंका जाता है। इसमें से कुछ हिस्सा रिसाइक्लिंग के लिए एकत्रित हो जाता होगा, पर ज्यादा तो इधर-उधर सड़कों के किनारे या नालियों में हर नगर/शहर में नजर आएगा। रेलवे ट्रैक के दोनों तरफ इन पॉलिथिन थेलियों का अंबार सभी जगह देखने को मिलता हैं। शहरों में नालियों में जमा हुए इन थेलियों से पानी का निकास नहीं होता है और जल जमाव हर तरफ दिखने लगता है। वर्षो पहले कागज के ठोंगे का ही उपयोग होता था, और प्रायः घर से बाहर निकलते वक्त हम सभी कपड़ो के थैले साथ लेकर चलते थे।

आज जो सामग्री जोमेटो, स्वीगी, अमेजोन, ब्लिन्किट जैसे डिलिवरी करने वालों से हम मंगवाते हैं उनमें कितना प्लास्टिक या गत्ते का उपयोग पेकेजिंग में होता है उससे बेहिसाब पर्यावरण का नुक्सान हो रहा है। इनको पेकिंग करने में टनों टन केवल एधेसिव टेप लग जाते हैं। पहले के जैसे बांधने के लिए जूट से बनी सुतली तो नजर ही नहीं आती है। विचार किजिए की आपके यहां भी जब ऐसी कोई पेकिंग की हुई सामग्री आती है तो आप एधेसिव टेप, प्लास्टिक या गत्ते के कार्टून्स का क्या करते हैं।

इस वर्ष पर्यावरण दिवस पर विशेष अभियान चलाया गया था प्लास्टिक के उपयोग के विरुद्ध। पर जरा हम अपने चारों तरफ नजर दौड़ाएं तो देखेंगे केवल बोतल बंद पानी में, जो आज के दिन इतना प्रचलित है, उसमें कितनी प्लास्टिक को हम काम में लेते हैं। काफी इसमें रीसाइकल भी हो जाती होगी पर ज्यादातर तो हमारे कूड़े के ढेर में ही नजर आती है। पहाड़ों पर भी जाएं या सुदुर गांवो में भी देखें तो प्लास्टिक की बोतले चारों तरफ नजर आती है। शहरों में तो आजकल जिस हिसाब से छोटी-छोटी बोतले, डेढ़ सौ और 200 एम.ल. की हर फंक्शन में उपयोग की जा रही है, लगता है हम थोड़े दिन में भूल ही जाएंगे की गिलास में भी पानी दिया जाता था।

आईआईटी और अन्य तकनीकी संस्थानों में रिसर्च कर रहे छात्रो को नवाचार यह करना चाहिए कि हम इन प्लास्टिक की बोतलों को व पॉलिथिन थैलियों को रीसाइकलिंग कैसे पोर्टेबल छोटी-छोटी मशीनों से कर सकते हैं। विचार कीजिए क्या ऐसी छोटी मशीने हर पर्यटक स्थल पर लगा दी जाए या एक टेंपो पर ही लोड करके इसे पोर्टेबल यूनिट बना दी जाए। इसे जगह-जगह घूमाते रहे और वहीं पर उसे कचरे का निष्पादन कर दे। इसके जो ग्रेन्यूल्स बने वह आराम से पैकिंग करके बाजार में बेचे जा सकते हैं। सरकार को भी इस पर विशेष ध्यान देना होगा नहीं तो आने वाले समय में हमारी आनेवाली पीढ़ियां बहुत ही तकलीफ में आ जाएगी।

विकास और आधुनिकता के नाम पर हम यह सब सह तो रहें हैं पर हमारी सेहत पर जो बुरा असर हो रहा है वह हमें ही भुगतना होगा। हम बुजुर्ग व्यक्तियों से ज्यादा आज के युवाओ को इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा।